हिन्दी में स्त्री-विमर्श की परम्परा
Keywords:
हास-परिहास, परिहास और व्यंग्य, पार्वती की विदाई की वेला, उतरांचल में पहाड़ीAbstract
स्वाधीनता की चिंता प्रायः उसे ही होती हे, जिसे यह विवेक हो कि मैं पराधीन हूं, स्त्री के संदर्भ में यह बात, कब प्रकाश में आयी यह कहना कठिन है, लेकिन इतिहास इस बात का साक्षी है कि दुनियां के हर देश, वर्ग, नस्ल और सम्प्रदाय की स्त्री इसके एहसास से अवश्य गुजरी है, चाहे उसके विरोध का तरीका भिन्न हो, मौन और मूखर हो, लेकिन स्त्रियां वस्तु से व्यक्ति बनने की दिशा में अग्रसर थीं, और जिन्हें यह सुविधा सहज उपलब्ध नहीं था, वे म नही मन इसकी आकांक्षा अवश्य कर रही थीं जैसा कि प्रस्तुत लोक गीतों में वर्णित है,
अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो।
चाहे नरक में दीजो डार।।
लोकगीतों में स्त्री की पराधीनता का बोध बड़े दिलचस्प ढंग से हुआ है जिसे महिलाएं शादी ब्याह के मौके पर अभिव्यक्त किया करतीं थीं, चूंकि ये गीत गेय परम्परा की देन है इसलिए इसका कोई सुनियोजित इतिहास नहीं है, वरना स्त्री विमर्श की परम्परा की शक्ल शायद कुछ और होती। ‘‘धिन उमादे सांखली’’ नाम से राजस्थान में गाया जाने वाला गीत तो चारण काल का है, महत्वपूर्ण यह है कि चारणियों ने वीर-काव्य प्रायः नहीं लिखा, पर हास-परिहास और व्यंग्य उनके स्फूट दोहे में अवश्य मिलता है, प्रस्तुत है एक गीत जिसमें परिहास और व्यंग्य की बानगी मौजूद है
References
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