समकालीन हिन्दी कविता में संबंधः नवीन संतुलन
Keywords:
मनुष्य की सामाजिकता, प्रथाओंAbstract
सभ्यता के विकास का सूत्र मनुष्य की सामाजिकता से जुड़ा हुआ है। समाज केवल मानव समूह का नाम नहीं है। जब तक विशिष्ट मानव-समूह किन्हीं अन्तः सूत्रों द्वारा परस्पर जुड़ा नहीं होता, उसे समाज कहना उचित नहीं है। समाजशास्त्रियों के अनुसार किसी समाज की विशिष्टता उसकी प्रथाओं, प्रणालियों, सत्ता और सहयोग के रूपों, विभाजन के आधारों, मानव व्यवहार के विधि-निषेधों में रहती है। समाज निरन्तर परिवर्तनशील रहता है और उसके घटकों को जोड़े रखने वाले सम्बन्ध भी जटिल होते हैं। यों तो प्रत्येक संस्कृति में इन संबंधों की रूपरेखा विशिष्ट होती है, किन्तु अन्ततः मानव हृदय सर्वत्र एक है, इसलिए संबंधों की पारस्परिकता और उनमें अन्तर्निहित सौहार्द और विश्वास बहुत कुछ एक रूप ही है। यह हम पारिवारिक संबंधों की चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि उनका आयाम स्वतंत्र विश्लेषण की अपेक्षा रखता है। यहाँ मुख्यतः उन सूत्रों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है, जिनसे सामाजिक परिप्रेक्ष्य में कोई सार्थक मानवीय संबंध जुड़ता है, मैत्री, कृतज्ञता, सौहार्द, सहयोग, विश्वास, आत्मीयता, स्नेह, सौजन्य, आतिथ्य आदि कुछ ऐसे ही सूत्र हैं।
References
कुंवर नारायण: परिवेश हम तुम, पृ. 63
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रवीन्द्रनाथ त्यागीः आदिम राग, पृ. 30
केशवचन्द्र शर्माः वीणापाणि के कम्पाउण्ड में, पृ.65
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कविताएं 1965 (सं. अजित कुमार, विश्वनाथ त्रिपाठी) पृ. 223
तीसरा सरतक: (सं. अज्ञेय) पृ. 61
प्रारम्भः (सं. जगदीश चतुर्वेदीः नये काव्य की भूमिका), पृ. 9
प्रभाकर माचवेः मेपल, पृ.30
कविताएं 1965 (सं. अजित कुमार, विश्वनाथ त्रिपाठी) पृ. 293
. पद्यधर त्रिपाठी: नयी कविता (अंक-8), पृ. 98
-17. मुक्तिबोध: चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृ. 6, 146
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